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रफीक शादानी : ए‍क आत्‍मीय कवि की याद

प्रस्‍थान
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हाल के वर्षों में विश्‍व फलक पर अयोध्‍या- फैजाबाद की चर्चा भले ही साम्‍प्रदायिक वजहों से होती रही हो पर मर्यादा पुरुषोत्‍तम भगवान राम की जन्‍म भूमि होने के गौरव से विभूषित इस धरती को सद्भाव रूपी सरयू के जल से सींचने वाली शख्सियतों में जिन चंद लोगों को याद किया जा सकता है उनमें रफीक शादानी का नाम सबसे ऊपर आता है। रफीक शादानी यानी अनपढ होते हुए भी अवधी व्‍यंग्‍य के शीर्ष कवि के तौर पर प्रतिष्ठित  और मुफलिसी का जीवन जीते हुए भी  शाही तबीयत के  शख्‍स । बीती 9 फरवरी को एक सडक दुर्घटना में उनका निधन होने की सूचना ने न सिर्फ उनकी शायरी के कद्रदानों बल्कि अवध की पहचान को लेकर चिंतित रहने वाले हर शख्‍स को गहरे शोक में डाल दिया। रफीक साहब से मेरी मुलाकात पिछले वर्ष 25 अगस्‍त को उनके मुमताजनगर स्थित आवास पर ही हुई थी। मेरे साथ रघुवर शरण भी थे, जिन्‍होंने रफीक साहब से एक साक्षात्‍कार के लिए बैठकर बात करने का समय लिया था। रफीक साहब की तबीयत उस वक्‍त नासाज थी,  बावजूद इसके बिस्‍तर लेटे-लेटे ही उन्‍होनें हम लोगों से खूब बात की। उनसे मिल कर लगा कि वे सरयू और गोमती की दयार की मिट्टी में रची बसी अवधी भाषा के आम शब्‍दों और व्‍यंजनाओं के चमत्‍कारिक प्रयोग में ही महारत नहीं रखते बल्कि उनकी जीवन यात्रा भी किसी चमत्‍कार से कम नहीं थी। आंख खोलते ही उन्‍हें मेहनतकशी का परिवेश मिला सो स्‍कूली शिक्षा मयस्‍सर नहीं हो पायी। उन्‍हें जीविका के लिए अंडे का ठेला लगाना पडा। जीवन संघर्षों के बीच ही अंतर  की अभिव्‍यक्ति के रुप में फूटे कविता के स्‍वरों ने उन्‍हें काव्‍यमंचों का बादशाह बना दिया। उनके निधन पर कवि- आलोचक  यतीन्‍द्र मिश्र की यह प्रतिक्रिया उचित ही थी कि मीर अनीस चकबस्‍त से लेकर रामकृष्‍ण पाण्‍डेय आमिल और अब रफीक शादानी का अवसान पूर्वांचल के साहित्यिक-सांस्‍कतिक आकाश को थोडा और वीरान कर गया। रफीक शादानी कबीर की परंपरा के लोकधर्मी गायक थे।

रफीक साबह के जीवन में विस्‍थापन का दर्द भी था। उनका जन्‍म बर्मा (अब म्‍यांमार) में हुआ था जहां उनके पिता का इत्र का कारोबार था। द्वितीय विश्‍व युद्ध में उनका कारोबार बर्बाद हो गया और वे फैजाबाद आकर बस गये। इस संदर्भ में यतीन्‍द्र मिश्र की एक और टिप्‍पणी फिर याद आती है कि विस्‍थापन की घटना रफीक शादानी के शायर किरदार का रूपक ही बांधती दिखाई पडती है कि युद्ध की विभीषिका में सुगंध फैलाने का व्‍यापार भी आखिरकार नष्‍ट हो ही जाता है।

मंचो पर छा जाने वाले वाले रफीक शादानी  की कविताओं को प्रकाशन की दरकार है। बातचीत में ही रफीक साहब ने हमें यह भी बताया था कि कभी अटल जी ने तो कभी मुलायम सिंह यादव ने कविता पर मुदित होते हुए उनका काव्‍य संग्रह प्रकाशित कराने का वायदा किया था पर संयोग नहीं बन सका। रफीक साहब को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनकी की निम्‍न पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा-

मंदिर-मस्जिद बनै न बिगडै/ सोन चिरैया फंसी रहै।

भाड में जाए देश की जनता/ आपन कुर्सी बची रहै।।

-जब नगीचे चुनाव आवत है/ भात मांगौ पुलाव आवत है।

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