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होली मेरे गांव में,
होती थी धूमधाम से।
मांगते थे पंचगोंइठा और लकडि़यां,
होलिका जलती थी शान से।।
होती थी प्रतिष्ठा इसमें कि होलिका की लपटें खूब ऊंची उठें,
लोग समझ सकें कि जल उठे सब गिले शिकवे।
होलिका की राख जाती थी सबके घर में,
लगता था शांति, समृद्धि और सद्भाव का आशीर्वाद मिला।।
फिर शुरू हो जाती थी कीचड़ की होली,
नदी में कीचड़ के साथ धुल जाते थे आपस के वैमनस्य।
रंगों की होली से पहले ही पावन हो जाता था तन-मन,
एक दूजे को सराबोर कर प्रेम की डोर में बंध जाते थे सब।
सांझ ढलने तक सामने होता था एक नया जीवन,
नव सृजन की उम्मीदों से भरा।।
होली की वह परम्परा अब नहीं रही मेरे गांव में,
नहीं रह गया है कोई सरोकार होलिका से।
बस औपचारिकता में कुछ लोग जला देते हैं होलिका,
न कोई मांगता है लकड़ी न पंचगोंइठा।।
अब नहीं जल पाते आपस के गिले शिकवे,
लोग अपने-अपने घरों में खेलते हैं सिर्फ रंगों की होली।
आपस में नहीं मिल पाते दिल,
नालियों में आकर मिलते हैं होली के रंग।।
बना रहता है एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या और द्वेष,
नहीं हो पाती है नव सृजन की शुरुआत।
बोझिल ही बना रहता है जीवन,
वर्ष पर्यंत उदास और संशयित बना रहता है मेरा गांव।
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