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महिला आरक्षण विधेयक से पहले

प्रस्‍थान
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महिला आरक्षण विधेयक  राजनीति के  जातीय रंग में डूबे बगैर पास हो जाने की उम्‍मीद उन्‍हें ही हो सकती थी, जिन्‍हें देश के मौजूदा  राजनीतिक वातावरण की समझ न हो। संख्‍या बल हासिल हो जाने की स्थिति में यूपीए सरकार यदि यह विधेयक पास भी करा ले जाती है तो भी वह भविष्‍य की राजनीति में दलितों – पिछडों का ध्रुवीकरण नहीं रोक पाएगी। ऐसे में सत्‍तारूढ कांग्रेस और प्रमुख विपछी दल भाजपा के खिलाफ दलितों-पिछडों की बदौलत  राजनीति में अपनी प्रसांगिकता बनाए रखने वाले दलों की एकजुटता भारतीय राजनीति को एक बेहद त्रासदपूर्ण दौर में ले जाएगी। राजनीतिक हितों के लिए एक बार फिर राजनीति में जातीय अस्मिताओं का उफान 21वीं सदी के भारत को विकास के पथ पर आगे बढने से न सिर्फ रोक देगा बल्कि सामाजिक स्‍तर पर बहुत पीछे भी ले जाने की कोशिश करेगा । महिलाओं को जातीय आधार पर आरक्षण की श्रेणी में डाल कर उनका हित सोचने वाले यह स्‍वीकार नही कर पायेंगे कि महिला नेतृत्‍व भी अपनी योग्‍यता व क्षमता के बल पर विकसित हो सके। पंचायतों में जातीय आधार पर महिलाओं को आरक्षण देने का हश्र हम पहले ही देख चुके हैं।

महिला आरक्षण विधेयक के बहाने खुद को महिलाओं का हित चिंतक साबित करने में जुटे राजनीतिक दल यदि वास्‍तव में महिलाओं का हित चाहते हैं तो आरक्षण से पहले ज्‍यादा जरूरी यह है कि महिलाओं के लिए सरकारी एवं निजी क्षेत्र की सेवाओं में उम्र सीमा समाप्‍त कर दी जाए। कहना न होगा कि किसी महिला को उम्र के किसी भी पडाव पर नौकरी की जरूरत पड सकती है, अक्‍सर पडती ही है। जाहिर ही है कि उम्र सीमा उन्‍हें अपेक्षित अर्हता रखते हुए भी नौकरियों के लिए अयोग्‍य ठहरा देती है। तब एक महिला का जीवन उसके लिए भार ही बन जाता है।

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