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बिहार में नितीश कुमार की वापसी के आधार पर राजनीतिक सफलता का नया सूत्र तलाश रहे राजनीतिक पंडितों को सबसे पहले चुनाव परिणाम पर गहन मंथन करना चाहिए. इस चुनाव में सत्तारूढ़ गठबंधन की सफलता का सही आकलन विपक्ष की कमजोरी का आकलन किये बगैर संभव नहीं है. सही मायने में बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन के मुकाबले में खड़े विपक्ष के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं था, जिसे जनता आजमाकर देख न चुकी हो. लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान के पास बिहार की जनता के लिए उम्मीद की कोई लौ नहीं थी. कांग्रेस और उसके करिश्माई महासचिव राहुल गाँधी की सक्रियता से उलटफेर की उम्मीद जरुर की जा रही थी. ऐसे में चुनाव परिणाम आने के बाद कांग्रेस की स्थिति और भी ख़राब हो जाने की वजह तलाशना जरुरी हो जाता है. इस परिणाम से यह आकलन कर लेना जल्दबाजी होगी कि राहुल गाँधी अब करिश्माई नहीं रहे. दरअसल बिहार में कांग्रेस अपने सहयोगियों के अतीत के मुकाबले नितीश कुमार के वर्तमान की तुलना करने में गलती कर गयी. राहुल गाँधी बिहार में वही भाषा बोलने लगे जैसी भाषा उत्तर प्रदेश में मायावती के खिलाफ बोल रहे थे. बीते लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सफलता से उन्हें संभवत यह भ्रम हो गया कि राज्य सरकार पर कुशासन और भ्रष्टाचार के आरोपों से जनता प्रसन्न हो जाती है. बिहार में वह जनता को बेहतर विकल्प देने का भरोसा दिलाने के बजाय नितीश सरकार की सफलता को भी नकारने में लगे रहे. कांग्रेस को इससे पहले गुजरात में ऐसा ही झटका नरेन्द्र मोदी से भी मिल चुका है. जाहिर है कि जनता अब परिपक्व हो गयी है, वह आरोपों की सत्यता परखना जान गयी है.
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