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अयोध्या : ‘तेरा दरबार न छूटै, भजन का तार न टूटै’ रामजानकी मंदिर की पुजारी सरयू दासी के लिए ये पंक्तियां किसी भजन का हिस्सा भर नहीं हैं। उनके कंठ से इन पंक्तियों को सुनना प्रभु श्रीराम के प्रति उनके समर्पण और उनका अभिन्न बने रहने की भावना को सहज ही महसूस करने जैसा है।
यह मंदिर रामघाट मोहल्ले के माईबाड़ा में है। माईबाड़ा यानी रामनगरी में महिला साधुओं का सबसे प्रमुख आश्रयस्थल। पुजारी सरयू दासी लखीसराय (बिहार)से अयोध्या आई थीं। माईबाड़ा में आश्रय और महंत जानकी दासी का सानिध्य मिला तो उनके जीवन को दिशा मिल गई। कम उम्र और गायन प्रतिभा के कारण उन्हें आश्रम के मंदिर में पुजारी का दायित्व दे दिया गया। परंपरा के मुताबिक कम उम्र की महिला साधु को आश्रम में ही कोई काम दे दिया जाता है।
छोटे बाल, माथे पर तिलक और वेशभूषा से ये महिला साधु भी पुरुष साधुओं जैसी ही लगती हैं। मौजूदा महंत जानकी दासी लगभग तीन दशक से यह दायित्व संभाल रही हैं। उन्हें यह दायित्व अपनी गुरु रहीं नर्मदा दासी से मिला था। करीब साठ साल पहले वह शाहजहांपुर से यहां आईं और माईबाड़ा में प्रवाहित रामभक्ति की अविरल धारा में ऐसी डूबीं कि यहीं की होकर रह गईं। मंदिर के चढ़ावे, आश्रम की गौशाला और अन्य मंदिरों में जाकर कीर्तन-भजन करने वाली महिला साधुओं को प्राप्त होने पारितोषिक से माईबाड़ा की व्यवस्था चलती है। माईबाड़ा में लगभग 18 कमरों के अलावा गौशाला भी है। रामनगरी के अन्य मंदिरों की तरह यहां की दिनचर्या में भी परंपरा के अनुसार भोग-राग, भजन-कीर्तन और गोसेवा शामिल है।
माईबाड़ा में कृष्णा दासी, शकुंतला दासी, शांता दासी, रुक्मिणी दासी, राधा दासी व श्यामा दासी आदि कई ऐसी महिला साधु हैं, जो अब इसी आश्रम में रहकर भजन का तार न टूटने की कामना रखती हैं। रीवा (मध्य प्रदेश) की कृष्णा दासी करीब 25 साल पहले वैधव्य के बाद अपने पिता के साथ प्रयाग में स्नान करने गई थीं। वहां उन्हें माईबाड़ा की महंत जानकी दासी मिलीं और वह उन्हीं के साथ अयोध्या आ गईं। कृष्णा दासी के पति पुलिस सेवा में थे। पति की असमय मौत के बाद उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा तो प्रभु राम के सुमिरन को ही उन्होंने अपने जीवन का ध्येय बना लिया। परिवार पर बोझ नहीं बनना चाहती थीं सो अयोध्या में रह गईं। पारिवारिक पेंशन की रकम वह माईबाड़ा की व्यवस्था पर ही खर्च कर देती हैं और स्वयं भी अन्य साधुओं की तरह ही जीवन व्यतीत करती हैं। कृष्णा दासी बताती हैं कि अब यही अपना परिवार है। आश्रम के सामान्य कामकाज में हाथ बंटाने के बाद शेष समय भजन-कीर्तन में व्यतीत हो जाता है।
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