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मध्यवर्ग के पास नहीं दिखती प्रतिरोध की शक्ति : प्रो. सिंह

प्रस्‍थान
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फैजाबाद,  साहित्य अकादमी समेत कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से विभूषित हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि प्रो. केदारनाथ सिंह को लगता है कि चंद आर्थिक सुविधाओं के बहाने मध्यम वर्ग का मुंह बंद कर दिया गया है। वह महसूस करते हैं कि इस समूचे वर्ग के पास जैसे प्रतिरोधक शक्ति ही न बची हो, जबकि बौद्धिक और क्रियात्मक ऊर्जा सबसे ज्यादा इसी वर्ग के पास है।
पिछले दिनों समकालीन हिंदी कविता पर व्याख्यान देने यहां आए प्रो. सिंह जब विमर्श के लिए जुटे साहित्यकार से अनौपचारिक बातचीत कर रहे थे तो यह पीड़ा उनके चेहरे पर साफ उभर आती थी। उन्होंने जीवन और साहित्य दोनों में ही प्रतिरोधहीनता की इस स्थिति को मध्य वर्ग की सुविधाजीविता और ‘लिब्रलाइजेशन के दौर से जोड़कर देखा। ‘लिब्रलाइजेशन, जिसे वह उदारवाद की जगह लचीलापन कहना ज्यादा पसंद करते हैं। ‘अभी बिल्कुल अभी, ‘जमीन पक रही है, ‘यहां से देखो, ‘अकाल में सारस, ‘उत्तर कबीर व अन्य कविताएं, ‘टालस्टाय और साइकिल आदि चर्चित पुस्तकों के लेखक प्रो. सिंह जब वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव, डॉ. अनिल सिंह, आलोचक डॉ. अनुराग मिश्र, डॉ. राजेश मल्ल व युवा कवि विशाल श्रीवास्तव से मुखातिब हुए तो बातचीत हिंदीतर क्षेत्रों के साहित्य लेखन से शुरू हुई। प्रो. सिंह का कहना था कि देश के गैर हिंदी भाषी राज्यों जैसे मणिपुर, असम, अरुणाचल, केरल व पश्चिम बंगाल में साहित्य के पाठक न केवल बड़ी संख्या में हैं बल्कि गंभीर भी हैं। इन सभी राज्यों में बहुत गंभीर साहित्य लिखा जा रहा है। उन्होंने मिजोरम के लेखक जेम्स डेकुमा की चर्चा विशेष तौर पर की जो अपनी किताबों के प्रकाशन के लिए प्रकाशकों पर निर्भर नहीं है। लेखन से लेकर मुद्रण और वितरण तक का काम वह खुद करते हैं। यह लोगों को अविश्वसनीय लगेगा कि उनकी नई किताब की पांच हजार प्रतियां आइजोल जैसे छोटे से शहर में देखते-देखते बिक जाती है। यह बताते हुए प्रो. सिंह की आंखों में चमक थी कि छोटे-छोटे क्षेत्रों में हिंदीतर भारतीय भाषाओं के लेखन में इन दिनों कितना बुनियादी परिवर्तन हो रहा है। इस कारण पूछे जाने पर प्रो. सिंह ने कहा कि वास्तव में ये स्थान जनांदोलनों के प्रभाव में हैं। संकट बोध जितना गहरा और व्यापक होगा, साहित्य के लिए प्रेरक-दशाएं उतनी ही अधिक मात्रा में मौजूद रहेंगी। हिंदी भाषा के बारे में सवाल पर उन्होंने जोर देकर कहा कि हिंदी का विकास संस्कृत से नहीं हुआ है, यद्यपि वह संस्कृत की ऋणी है। उन्होंने हिंदी और उर्दू की बुनियादी एकात्मकता पर बल दिया।

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